कर्नाटक दर्शन !
आज की सैर एक ऐसे ऐतिहासिक और पवित्र स्थल की जहाँ माँ दुर्गा ने किया था महिषासुर का वध।
जी हाँ हम बात कर रहे श्री चामुंडेश्वरी मंदिर की जो
कर्नाटक के सुप्रसिद्ध मैसूर शहर से 12 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। 1000 साल से भी अधिक पुराना यह मंदिर माँ दुर्गा के चामुंडा रूप को समर्पित है। आपको तो मालूम ही होगा कि माँ दुर्गा ने यह रूप देवताओं को महाशक्तिशाली राक्षस महिषासुर के अत्याचार से मुक्त कराने के लिए लिया था।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार जिस चामुंडी पहाड़ी पर यह मंदिर स्थित है उसी स्थान पर माता चामुंडा ने महिषासुर का वध किया था।
इसके अलावा इस तीर्थ स्थान का बहुत ज्यादा महत्व है क्योंकि 18 महा शक्तिपीठों में से इसे भी एक माना जाता है।
जहाँ देवी सती के मृत शरीर के अंग गिरे, वहाँ शक्तिपीठ स्थापित हुए। अलग-अलग मान्यताओं के अनुसार इनकी संख्या 51 अथवा 52 है लेकिन इनमें से 18 शक्तिपीठों को महा शक्तिपीठ कहा जाता है। ये अत्यधिक महत्व के देवी स्थान माने गए हैं। इनमें से ही एक है चामुंडेश्वरी मंदिर जहाँ माता सती के बाल गिरे थे।
पौराणिक समय में इस क्षेत्र को क्रौंच पुरी के नाम से भी जाना जाता था जिसके कारण इस स्थान को क्रौंच पीठम भी कहा जाता है।
मैसूर के किसी भी कोने से देखने पर चामुंडी पहाड़ियाँ समुद्र तल से लगभग 3,489 फीट की ऊँचाई पर खड़ी दिखाई देती हैं। ये पहाड़ियाँ मैसूर से लगभग 12 किमी की दूरी और शहर से लगभग 800 फीट की ऊंचाई पर है।
मैसूर महाराजाओं की कुलदेवी और मैसूर की अधिष्ठात्री देवी भी हैं माता चामुंडेश्वरी। कई शताब्दियों से वे देवी चामुंडेश्वरी की पूजा पूरे धूमधाम से करते आये हैं।
मैसूर का दशहरा पूरे भारत में प्रसिद्ध है और यह इस मंदिर का भी मुख्य त्यौहार है। चामुंडेश्वरी मंदिर में मनाया जाने वाला दशहरा इसलिए भी खास है क्योंकि इस दिन माता चामुंडेश्वरी की झाँकी निकाली जाती है। माता चामुंडा इस दिन सोने की पालकी में बैठकर भ्रमण के लिए निकलती हैं।
अब अगर हम इसके इतिहास की तरफ नजर दौड़ायें तो देवी माहात्म्य में जिन माता चामुंडा का प्रमुख रूप से वर्णन किया गया है वही इस सदियों पुराने मंदिर की मुख्य देवी हैं। देवी पुराण और स्कन्द पुराण में इस दिव्य क्षेत्र का वर्णन किया गया है। पुराणों के अनुसार जब महिषासुर ने ब्रह्माजी की तपस्या से वरदान हासिल कर लिया तो वह देवताओं पर ही अत्याचार करने लगा था।
ब्रह्माजी ने महिषासुर को वरदान दिया था कि उसका वध एक स्त्री के माध्यम से ही होगा। यह जानने के बाद सभी देवता माँ दुर्गा के पास पहुँचे और इस समस्या का समाधान करने के लिए कहा। तब माँ दुर्गा ने महिषासुर का वध करने के लिए चामुंडा का रूप धारण किया। इसके बाद इसी स्थान पर माता चामुंडा और महिषासुर में भयानक युद्ध हुआ और अंततः माता चामुंडा ने उस राक्षस का वध कर दिया।
इस मंदिर का निर्माण 12वीं शताब्दी में होयसल वंश के शासकों द्वारा कराया गया। इसके बाद विजयनगर साम्राज्य के शासकों के द्वारा भी इस मंदिर का लगातार जीर्णोद्धार कराया गया। मंदिर का सात मंजिला गोपुरा भी 17वीं शताब्दी के दौरान विजयनगर शासकों के द्वारा निर्मित कराया गया है।
सन् 1827 के दौरान कृष्णाराजा वाडेयर तृतीय ने इस मंदिर का पुनर्निर्माण कराया। माँ दुर्गा के अनन्य भक्त वाडेयर ने मंदिर के लिए सिंह वाहन, रथ और बहुमूल्य रत्न अर्पित किए थे।
मंदिर का निर्माण द्रविड़ वास्तुशैली में हुआ है। मंदिर में प्रवेश करने से पहले ही महिषासुर की एक बड़ी सी प्रतिमा स्थापित है। जिसमें राक्षस के एक हाथ में तलवार और दूसरे हाथ में एक विशाल सर्प है। इसे आप तस्वीरों में भी देख सकते हैं।
इसके अलावा जब सीढ़ियों के माध्यम से मंदिर के लिए जाते हैं तो रास्ते में एक विशाल नंदी की प्रतिमा स्थापित की गई है। 15 फुट ऊँचे इस नंदी का निर्माण एक ही पत्थर से किया गया है। मंदिर के गर्भगृह पर विमानम का निर्माण किया गया है जिसके शिखर पर 7 स्वर्ण कलश स्थापित किये गए हैं।
स्कंद पुराण’ और अन्य प्राचीन ग्रंथों में ‘त्रिमूत क्षेत्र’ नामक एक पवित्र स्थान का उल्लेख है जो आठ पहाड़ियों से घिरा हुआ है। पश्चिमी दिशा में चामुंडी पहाड़ियाँ हैं जो आठ पहाड़ियों में से एक है। पहले के दिनों में, पहाड़ी को ‘महाबलेश्वर मंदिर’ में निवास करने वाले भगवान शिव के सम्मान में ‘महाबलद्री’ के रूप में पहचाना जाता था। यह पहाड़ियों पर सबसे पुराना मंदिर है।
कैसे पहुँचें ?
अगर ट्रेन से जाते हैं तो मैसूर जंक्शन स्टेशन से मंदिर की दूरी लगभग 13 किलोमीटर है। वहाँ से आपको कई तरह की सवारियाँ यहाँ जाने के लिए मिल जाती है।
राज्य सरकार की 102 नम्बर की बस ऊपर मन्दिर तक जाती है जिसमें आप सिर्फ 25 रुपये देकर यहाँ पहुँच जाएँगे। यह सुविधा हर 20 मिनट पर उपलब्ध है।
दर्शन और पूजा का समय : सुबह 7.30 से दोपहर 2 बजे तक, शाम 3.30 से 6 बजे तक और शाम 7.30 से 9 बजे तक।
अभिषेक समय : सुबह 6 से 7.30 बजे तक और शाम 6 से 7.30 बजे तक
शुक्रवार सुबह 5 से 6.30 बजे तक।
प्रतिदिन भक्तों के लिए दसोहा (निःशुल्क भोजन) की व्यवस्था की जाती है। सुबह - 7.30 से 10 बजे तक, दोपहर - 12 बजे से 3.30 बजे तक, रात्रि - 7.30 बजे से 9 बजे तक
प्रवेश निःशुल्क भी है और ₹30 एवम ₹100 के टिकट के साथ भी। 100 रुपये के टिकट में मन्दिर की तरफ से अंदर ही प्रसाद के रूप में एक बड़ा लड्डू भी दिया जाता है।