भूतिया मालचा महल : झूठ या सच

मैंने कल वादा किया था कि आज मैं दिल्ली के ऐसे पुरातत्व महत्व के जगह की सैर कराऊंगा जो एक अभिशप्त महल है और गुमनामी के अंधेरे में है।
इसको लोग एक भूतिया महल के रूप में ही जानते हैं जो बिल्कुल ही गलत है।

कल ही मैं यहाँ जाकर वहाँ से इसका सजीव प्रसारण भी किया था जिसे आप मेरे कल के पोस्ट पर देख सकते हैं।

अब आईये चलते हैं इसकी पृष्ठभूमि में

वो समय था 1975 का जब अचानक एक महिला अपने 2 बच्चों और 12 डोबरमैन कुत्ते और 5 सेवक के साथ नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के प्रथम श्रेणी कक्ष को अपना बसेरा बना लिया।
रेलवे अथॉरिटी चाह कर भी उनको वहाँ से नहीं निकाल पायी।
वे निकालने आने वालों पर अपने कुत्तों को छोड़ देती थीं। कभी आत्म हत्या करने की धमकी देती थीं। कभी चिल्लाने लगती थी।

ये महिला थीं नवाब वाजिद अली शाह की पुत्र वधु बेगम विलायत महल।
उनका दावा था कि वो अवध के अंतिम नवाब वाजिद अली शाह की परपोती थीं और वो भारत सरकार से उन तमाम जायदाद के बदले मुआवजे की मांग कर रहीं थीं जिसे भारत सरकार ने उनके दादा-परदादा से ज़ब्त कर लिया था।

वे वहाँ पर 1975 से 1984 तक ऐसे ही डटी रहीं।
बाद में प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने खुद उनसे मुलाकात कर इस समस्या का समाधान निकाला।
बेगम विलायत महल की मांग थी कि उन्हें ऐसी जगह पर बसाया जाय जहाँ किसी का आना जाना न हो। जो सुनसान हो , वियावान हो।

बेगम साहिबा को जब मालचा महल दिखाया गया तो उन्हें बहुत पसंद आयी।
क्योंकि यह जगह आम लोगों के पहुँच से दूर थी।
वे अपने पूरे कुनबे के साथ मालचा महल में पहुँच गई थीं। अब जानिए कुछ मालचा महल के बारे में।
मालचा महल फिरोज शाह तुगलक का कभी शिकारगाह हुआ करता था।

चारों ओर कंटीली तार के बाड़े से घिरे उस महल के प्रवेश द्वार पर लगे पत्थर पर लिखा है, रूलर्स ऑफ अवध: ‘प्रिंसेस विलायत महल’।

इस तरह से अवध राजघराने के वंशज राजकुमार ‘रियाज़’ और राजकुमारी ‘सकीना महल’ अपनी माँ ‘विलायत महल’ के साथ इसमें रहने लगे।
1985 में भारत सरकार ने बेगम विलायत महल को इसका मालिकाना हक़ दे दिया।
10 सितंबर 1993 को माँ विलायत महल ने 62 साल की उम्र में आत्महत्या कर ली थी जिससे अब राजकुमार और राजकुमारी दोनों अकेले हो गए।

अब हम चलते हैं थोड़ा और पीछे कि विलायत महल को ऐसा करने की जरूरत पड़ी ही क्यों।

अवध के आखिरी नवाब वाजिद अली शाह को 1856 में अंग्रेजों ने सत्ता से बेदखल कर दिया था।
उन्हें कलकत्ता जेल में डाल दिया गया जहां उन्होंने अपने जीवन के आखिरी 26 साल गुजारे।

जब 1947 में भारत को आजादी मिली तब तक वाजिद अली शाह का खानदान इधर-उधर तितर वितर हो चुकी थी।
पर कई लोग दावा कर रहे थे कि वह नवाब के खानदान के हैं।
प्रधानमंत्री नेहरू ने नवाब के खानदान को कश्मीर में एक घर भी दे दिया था रहने को।

सोसाइटी मैगजीन में बेगम के रेलवे स्टेशन पर धरने के बारे में पूरा वृतांत सामने आया था तब
जब इंदिरा गांधी की सरकार थी।
उस सरकार ने तो राजाओं के भत्ते भी खत्म कर दिए थे।

एक कहानी इस महल के बारे में।

बेगम विलायत महल के नाम की पट्टी
इस घर में लगी थी पर ना बिजली थी, ना पानी की आपूर्ति का कोई साधन ही था।

एक बार आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के एक अफसर धर्मवीर शर्मा इस महल का निरीक्षण करने गए थे।
एक साँप सीलिंग से उनकी बांह पर गिर गया।
धर्मवीर साहब ने उस वक्त कहा था कि अब मैं उस महल में कभी नहीं जा सकता।
पता नहीं, बेगम कैसे रहती हैं।
सिर्फ छिपकलियां, सांप और चमगादड़ रहते हैं यहाँ पर।
ये घर भुतहा लगने लगा था।
उस महल में छिपकलियां घूमती थीं।
कमर तक घास उगी थी।
दरवाजे नहीं थे। खिड़की नहीं थी।
महल का गेट जिस पर लिखा है कि लोगों का आना मना है।
गोली मार दी जाएगी ।

धीरे-धीरे इस महल के भुतहा होने की बात फैलने लगी।
लोग कहने लगे कि एक-दो लोग जो भी कहानी की तलाश में इस महल में घुसे पर कभी वापस नहीं लौटे।

भाई-बहन का बाहरी दुनियाँ से कोई वास्ता नहीं था।
वे बस खाने-पीने का सामान भर लेने घर से बाहर निकलते थे।
वो भी चेहरे पर कपड़ा बांध कर ।
महल के सोने-चांदी से उनका काम चलता था।

दोनों भाई-बहन काफी पढ़े लिखे थे।
सकीना ने तो माँ के ऊपर एक किताब भी लिखी है।
पुस्तक का नाम ‘प्रिंसेस विलायत महल: अनसीन प्रेजन्स’ है।
ये पुस्तकों नीदरलैंड, फ्रांस और ब्रिटेन की लाइब्रेरियों में मौजूद है, भारत में नहीं।
इन लोगों के पास एक पुरानी तोप भी थी।
कई लोग इसे खरीदना भी चाहते थे पर इन लोगों ने इसे बेचने से इनकार कर दिया था।
बाहरी लोगों से तो राजकुमार-राजकुमारी नहीं मिले, पर विदेशी अखबारों को इंटरव्यू दिया था।

राजकुमार के पास सिर्फ एक साइकिल थी।
वे उसी पर आते-जाते थे।
बाहर सिर्फ वही निकलते थे।

जब ये खानदान मालचा महल में रहने लगा तो उनके साथ 5 नौकर भी थे।
लेकिन आमदनी का कोई ज़रिया नहीं था तो न नौकर बाकी रहे और न ही कुत्ते।
प्रिंस कई साल से बेहद ग़रीबी में अकेले रहते थे।
उनकी ज़िंदगी भी एक रहस्य थी।
गुजर-बसर कैसे होती थी लोग इसके बारे में अलग-अलग तरह की बातें करते हैं लेकिन इतना ज़रूर है कि आख़िरी दिनों में उनके पास बेचने के लिए भी कुछ बाकी नहीं था।

साल 2017 सितंबर में राजकुमार का भी निधन हो गया और किसी को ख़बर तक नहीं हुई।
पुलिस ने दिल्ली वक़्फ़ बोर्ड की मदद से उनका अंतिम संस्कार करवाया था।

बताते हैं कि अंदर दाखिल होते ही चारों तरफ एक गुजरे हुए दौर की यादें बिखरी पड़ी थीं।
सामने ही एक तख्त पर एक पुराना टूटा हुआ टाइपराइटर तो चारों तरफ़ कुछ फ़ाइलें बिखरी पड़ी थीं जिनके कागज वक्त के साथ पीले पड़ गए।
उनमें से ज़्यादातर फ़ाइलों में भारत सरकार के साथ बेगम विलायत महल का पत्राचार की प्रतिलिपि थी।
सरकार से मुआवजा हासिल करने की उन्होंने आखिर तक कोशिश जारी रखी थी।

एक अलमारी में कुछ किताबें थीं जो ज़्यादातर लखनऊ और मुग़ल दौर के बारे में है।
नेशनल ज्योग्राफ़िक मैगज़ीन शायद प्रिंस को बहुत पसंद थी, क्योंकि उसकी प्रतियां हर जगह पड़ी मिली थी। पुरानी चेकबुक हैं, जो शायद लंबे समय से इस्तेमाल नहीं हुई थीं।
पुरानी तस्वीरें भी हैं, जिनसे इनके अच्छे वक़्त की झलक मिलती है।
एक कमरे में एक फ्रिज रखा था शायद उस दौर का जब भारत में विदेशों से फ्रिज आना शुरू ही हुआ था।
फ्रिज के अंदर उस साइज़ का बल्ब लगा था, जो आम तौर पर अब कमरों में दिखता है।
लेकिन अफ़सोस, वहाँ कभी बिजली आई ही नहीं।

सामने ही एक बरामदे में डाइनिंग टेबल थी जिस पर कुछ प्लेटें रखी थीं।
एक और मेज पर क्रॉकरी सजी थी।
कहना मुश्किल है इस मेज पर आखिर बार कब खाना खाया गया होगा।
महल के एक हिस्से में एक खुली रसोई भी है और आसपास बर्तन बिखरे पड़े हैं।

पास में ही एक जंग लगी तलवार भी थी।
जिसने इस शाही खानदान की तरह शायद कभी अच्छा वक्त भी देखा होगा।

जब मैं यहाँ गया तो यहाँ कुछ भी नहीं था।
शायद पुरातत्व विभाग द्वारा सब कुछ हटा दिया गया हो।

महल के खंडहर दिखने में डरावना और भुतहा अवश्य लगते हैं पर ऐसा है नहीं।
पर हाँ वातावरण में एक अजीब सी सरसरी जरूर महसूस होती है। उसके बारे में फैले अफवाह ने ही इसे भूतिया बनाने में मदद किया हो।

बेगम सकीना महल ने एक मर्तबा एक पत्रकार से कहा था कि आम होना सिर्फ़ एक जुर्म ही नहीं, एक पाप है। ये ही इस खानदान की त्रासदी थी।
वो जीवन में अपने इतिहास को भुला नहीं सके और मौत में उन्हें किसी ने याद नहीं किया।

इस खण्डहर के बगल में मौसम विभाग का दफ्तर है।
वहाँ के बाहर खड़े सुरक्षा अधिकारी ने बताया कि राजकुमार के पास पड़े पैसे खतम होने लगे तो नौकरों का हटा दिया गया।
कुत्तों को भगवान भरोसे छोड़ दिया गया।
महल के आस पास चोर डकैत मंडराने लगे।
वे कुत्तों को जहर देने लगे थे।
अब केवल एक दो कुत्ते शेष रह गये थे।

ऐसे में महल में चोरी हो गयी। पता नहीं कि
हीरे जवाहरात तो उनके हाथ आया या नहीं लेकिन चाँदी के बहुत सारे बर्तन चोर अपने साथ ले गये थे।
यह खबर मीडिया की वजह से सामने आ गयी।
दिल्ली के तात्कालीन एल जी साहब ने राजकुमार रजा को पिस्तौल रखने का लाइसेंस दे दिया।

राज कुमार रजा के पास एक टूटी हुई साइकिल थी।
वे फर्राटेदार अंग्रेजी बोलते थे।
साइकिल ले कर वे अपने एक मात्र कुत्ते के लिए मीट लेने के लिए निकलते थे।
रास्ते में वे किसी से बात नहीं करते थे।
कोई करना भी चाहता तो वे उस पर अपना रिवाल्वर तान देते थे।
राज कुमारी सकीना तो बहुत कम ही बल्कि नहीं के बराबर घर से निकलतीं थीं।
इन भाई बहन के पास अब ढंग के कपडे भी नहीं रह गए थे।
मालचा महल में कोई बिजली नहीं थी।
पानी राज कुमार सरकारी टंकी से निकालकर अंदर ले जाते थे।
इनके पास एक टेलीफोन था।
ख़राब होने पर ये उसे तार बाड़ से बाहर रख देते थे। मैकेनिक वहीं आकर ठीक करता और फिर बाड़े के अंदर रख देता।
राजकुमार उसे अंदर ले जाते थे।

अपने एक मात्र बी बी सी को दिए गए साक्षात्कार में इन भाई बहन ने कहा था कि जीने के सारे साधन ख़त्म हो जाने पर ये अपनी माँ की तरह आत्म हत्या कर लेंगे।
दोनों भाई बहन को आत्म हत्या नहीं करनी पड़ी।
पहले बहन अपनी स्वाभाविक मौत मरी।
फिर भाई भी 2017 में चल बसे थे।

लखनऊ के नवाब जिनके बड़े बड़े इमामबाड़े और बड़े बड़े महल थे
पूरा लखनऊ और अवध जिनका था
उनका भी कुछ न रहा
तो हम लोग किस खेत की मूली हैं।
पर हम अपनी सम्पत्ति अपने जमीन जायदाद पर घमण्ड करने से बाज नही आते हैं।

धौला कुआं से 2 किलोमीटर की दूरी पर
इस महल तक जाने कारास्ता सरदार पटेल मार्ग से जाता है।
टूटी फूटी सड़क आपको इस वियावान जंगल के बीच स्थित मालचा महल तक ले जाती है।
मुख्य पथ पर ही बाँयी तरफ मौसम विभाग का बोर्ड लगा हुआ है जिसके अंदर से आप यहाँ जा सकते हैं।

मेट्रो स्टेशन : ‘धौला कुआँ’ से रिक्शा लेकर जा सकते हैं।
बस स्टैंड : रेलवे कॉलोनी सरदार पटेल मार्ग। यहाँ से 729 , 729 B , एयरपोर्ट एक्सप्रेस , 706 , 770 , 740 , 790 नम्बर की बस गुजरती है।
निजी सवारी से जाने पर महल से 100 मीटर की दूरी पर आप गाड़ी पार्क कर सकते हैं।

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अगली बार आपको सैर कराएंगे एक और अभिशप्त भूतिया महल की जो दिल्ली के आजादपुर इलाके में है।

तब तक के लिए जय जय हिन्दुस्तान !





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Beautifully written post @Hemendu ji but some of your photos have not uploaded. Kindly upload those photos again